National Press Day 16 November मीडिया के कार्य-तरीकों और हित-आधारित संचालन को समझाने वाले सिद्धांत: एक विश्लेषणात्मक लेख
National Press Day 16 November आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है। इस अवसर पर यह आवश्यक हो जाता है कि हम मीडिया की कार्यप्रणाली, उसकी जिम्मेदारियों और उसके वास्तविक स्वरूप को समझें। इसी संदर्भ में यह लेख मीडिया के विभिन्न सिद्धांतों के आधार पर उसके हित-आधारित संचालन की गहरी पड़ताल प्रस्तुत करता है।
मीडिया आधुनिक समाज का एक अनिवार्य घटक है, जिसका प्रमुख उद्देश्य सूचना का प्रसार, जनमत निर्माण, सामाजिक निगरानी और सार्वजनिक विमर्श को दिशा देना है। यद्यपि यह आदर्श रूप से एक लोकतांत्रिक, निरपेक्ष और जनहितकारी संस्था माना जाता है, किंतु वास्तविकता में मीडिया की कार्यप्रणाली कई आर्थिक, राजनीतिक और संस्थागत शक्तियों के प्रभाव में होती है। इसी संदर्भ में संचार एवं मीडिया विशेषज्ञों ने अनेक सिद्धांत विकसित किए हैं, जो यह बताते हैं कि मीडिया किस प्रकार कार्य करता है, कैसे जनता की सोच को प्रभावित करता है, और किन परिस्थितियों में यह विशिष्ट वर्गों के हितों की पूर्ति का साधन बन जाता है। ये सिद्धांत मीडिया की नैतिक सीमाओं, संरचनात्मक दबावों और शक्ति-संबंधों को पहचानते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि मीडिया समाज में केवल सूचना प्रदाता नहीं, बल्कि शक्ति-संतुलन का एक उपकरण भी बन सकता है। आगे इन्हीं प्रमुख सिद्धांतों का विस्तृत और सरल विवेचन प्रस्तुत है।
एजेंडा सेटिंग थ्योरी, जिसे मैकॉम्ब्स और शॉ ने विकसित किया, यह बताती है कि मीडिया यह तय नहीं करता कि जनता किसी मुद्दे पर क्या राय बनाए, लेकिन यह अवश्य तय करता है कि जनता किस मुद्दे पर विचार करे। जब मीडिया किसी विशेष विषय को बार-बार और प्रमुख स्थान पर प्रस्तुत करता है, तो वह विषय समाज के लिए महत्त्वपूर्ण प्रतीत होने लगता है। इसके विपरीत जिन मुद्दों को कम या बिल्कुल कवरेज नहीं मिलती, वे सार्वजनिक चर्चा से बाहर हो जाते हैं। यह सिद्धांत स्पष्ट रूप से संकेत करता है कि मीडिया के पास शक्तिशाली एजेंडा सेटिंग क्षमता है, और यदि मीडिया किसी शक्ति-समूह, आर्थिक हितधारी या राजनीतिक वर्ग के प्रभाव में हो, तो वह उसी के अनुकूल एजेंडा निर्धारित कर सकता है। इससे वह विषय कमजोर हो जाते हैं जो आम जनता, गरीबों या वंचित वर्गों से जुड़े होते हैं, जबकि शक्तिशाली वर्गों से जुड़े विषय प्रमुखता से उभरते हैं।
फ्रेमिंग थ्योरी (Framing Theory), जिसे गॉफमैन और बाद में एंटमैन ने विस्तार दिया, एजेंडा सेटिंग का ही गहन रूप माना जाता है। यह सिद्धांत बताता है कि मीडिया केवल मुद्दों का चुनाव ही नहीं करता, बल्कि उन्हें किस रूप में प्रस्तुत किया जाएगा—यह भी तय करता है। किसी भी घटना को चुनिंदा शब्दों, दृष्टिकोणों, चित्रों, रूपकों और कोणों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक आंदोलन को “अशांति फैलाने वाला” या “न्याय की मांग करने वाला”—दोनों ढंग से दिखाया जा सकता है, और दोनों ही चित्रण जनता की प्रतिक्रिया को पूरी तरह बदल सकते हैं। फ्रेमिंग के माध्यम से मीडिया घटनाओं की व्याख्या और अर्थ-निर्माण को नियंत्रित करता है, जिससे समाज में किसी मुद्दे की धारणा विशेष दिशा में मोड़ी जा सकती है। कई बार फ्रेमिंग शक्तिशाली समूहों के हित में काम करती है, क्योंकि मीडिया उन नैरेटिव्स को बढ़ावा देता है जिनसे राजनीतिक, कॉर्पोरेट या संस्थागत हित संरक्षित हों। National Press Day 16 November
प्रोपेगेंडा मॉडल, जिसे हर्मन और नोम चॉम्स्की ने प्रस्तुत किया, मीडिया की संरचना और नियंत्रण को सबसे स्पष्ट रूप में उजागर करता है। यह मॉडल बताता है कि मीडिया पाँच फिल्टरों के माध्यम से संचालित होता है—मालिकाना संरचना, विज्ञापनदाताओं का प्रभाव, स्रोतों पर निर्भरता, आलोचनात्मक विचारों का दमन, और सत्ता की प्रमुख विचारधारा। इन फिल्टरों के कारण मीडिया समाज के सशक्त वर्गों के हितों की रक्षा करता है, जबकि उन समाचारों को हाशिये पर रखता है जो उनके लिए हानिकारक हों। उदाहरण के लिए, बड़े कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ घोटाले या मजदूर वर्ग के संघर्षों को अक्सर उतनी प्रमुखता नहीं मिलती जितनी सरकार, कंपनियों या शक्तिशाली राजनीतिक दलों की घोषणाओं को मिलती है। इस मॉडल के अनुसार मीडिया एक “सहमति निर्माण मशीन” बन जाता है जो जनता की सोच को शक्ति-संरचनाओं के अनुकूल बनाने का कार्य करती है।
हीजेमनी थ्योरी, एंटोनियो ग्राम्शी द्वारा विकसित, सत्ता और विचारधारा के सूक्ष्म संबंधों को समझाती है। यह सिद्धांत कहता है कि सत्ता केवल दमन या बल के माध्यम से नहीं चलती, बल्कि जन-सहमति के माध्यम से भी चलती है। मीडिया इस सहमति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह उन विचारों को सामान्य, स्वाभाविक और सही बताता है जो प्रभुत्वशाली वर्गों के हित में होते हैं। जैसे उपभोक्तावाद को “प्रगति”, निजीकरण को “आवश्यक सुधार”, या सैन्य निर्णयों को “राष्ट्र सुरक्षा” के रूप में प्रस्तुत किया जाना। इस प्रकार मीडिया जनता की सोच को इस तरह दिशा देता है कि वह अनजाने में ही सत्ता की विचारधारा को स्वीकार कर ले।
गेटकीपिंग थ्योरी यह समझाती है कि मीडिया में आने वाली प्रत्येक सूचना कई चरणों से होकर गुजरती है और इन चरणों पर बैठे लोग गेटकीपर कहलाते हैं। संपादक, समाचार निर्माता, मीडिया मालिक, और कई बार सरकारी तंत्र—यह तय करते हैं कि कौन-सी खबर दिखेगी और कौन-सी नहीं। इस निर्णय पर आर्थिक लाभ, राजनीतिक संबंध, व्यक्तिगत विचार, और संस्थागत दिशानिर्देश प्रभाव डालते हैं। यदि कोई मुद्दा शक्तिशाली समूहों के लिए असुविधाजनक हो, तो उसे सीमित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके विपरीत, सत्ता के अनुकूल खबरों को विस्तृत और सकारात्मक रूप में दिखाया जाता है। इस प्रकार समाचारों की अंतिम रूपरेखा गेटकीपिंग प्रक्रिया पर निर्भर होती है, जो कई बार जनहित से अधिक संस्थागत हितों को महत्व देती है।
मीडिया डिपेंडेंसी थ्योरी यह बताती है कि आधुनिक समाज में लोग सूचना, निर्णय और सामाजिक समझ के लिए मीडिया पर अत्यधिक निर्भर होते जा रहे हैं। जब समाज जटिल होता है, समस्याएँ बढ़ती हैं, और वैकल्पिक सूचना संसाधन सीमित होते हैं, तब मीडिया लोगों की प्राथमिक सूचना-स्रोत बन जाता है। ऐसी स्थिति में मीडिया के पास जनता की राय, व्यवहार और दृष्टिकोण को प्रभावित करने की अत्यधिक क्षमता होती है। यदि मीडिया किसी विशिष्ट समूह के नियंत्रण में हो तो वह समाज की धारणा को अपने हितों के अनुसार ढाल सकता है।
कल्चरल इम्पीरियलिज्म थ्योरी वैश्विक शक्तियों और मीडिया के संबंधों पर प्रकाश डालती है। विकसित देशों का मीडिया विकासशील देशों में अपनी संस्कृति, आदर्श, उपभोक्तावाद और राजनीतिक मान्यताओं को फैलाता है। इससे स्थानीय संस्कृति कमजोर होती है और वैश्विक बाज़ारवाद मजबूत होता है। विज्ञापन, मनोरंजन, टीवी सीरियल, समाचार और सोशल मीडिया के माध्यम से यह सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित होता है। यह सिद्धांत भी इस बात की ओर संकेत करता है कि मीडिया केवल सूचना प्रसारण का माध्यम नहीं, बल्कि शक्ति-प्रक्षेपण का साधन भी बन सकता है। National Press Day 16 November
बौद्रिलार्ड की हाइपर-रियलिटी थ्योरी बताती है कि आधुनिक मीडिया वास्तविकता और कल्पना की सीमाओं को मिटा देता है। मीडिया एक “निर्मित वास्तविकता” प्रस्तुत करता है, जिसे लोग सत्य मान लेते हैं। समाचार, विज्ञापन, दृश्य-प्रभाव और आभासी घटनाएँ—सब मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाते हैं जिसमें वास्तविकता का मूल्यांकन कठिन हो जाता है। इस निर्मित वास्तविकता में वही विचार और कथाएँ मजबूत की जाती हैं जो शक्ति-समूहों के अनुरूप हों।
इन सभी सिद्धांतों का समग्र विश्लेषण यह दर्शाता है कि मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा होते हुए भी अक्सर शक्ति-समूहों की प्राथमिकताओं से प्रभावित होता है। यद्यपि मीडिया का आदर्श स्वरूप निष्पक्षता, जनहित और स्वतंत्र विचार का पक्षधर है, परंतु वास्तविकता में आर्थिक मॉडल, विज्ञापन-आधारित संरचना, राजनीतिक दबाव, कॉर्पोरेट स्वामित्व और संस्थागत हितों के कारण मीडिया कई बार विशेष वर्गों के हितों को प्राथमिकता देता है। इससे यह अपेक्षा करना अव्यावहारिक होता है कि मीडिया स्वतः सामाजिक परिवर्तन, न्याय और समानता के लिए आंदोलित होगा। हालांकि कई बार लाभ के क्रम में सामाजिक हित भी पूरे हो जाते हैं, लेकिन यह उसकी मूल प्रेरणा नहीं कहलाती।
अतः मीडिया को समझने के लिए इन सिद्धांतों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि ये बताते हैं कि मीडिया केवल समाज का दर्पण नहीं, बल्कि विचार निर्माण की एक सक्रिय संरचना है, जो कई हितों, दबावों और शक्ति-सम्बंधों के बीच कार्य करती है। समाज के लिए मीडिया साक्षरता और नागरिक जागरूकता का बढ़ना उतना ही आवश्यक है जितना मीडिया की पारदर्शिता और जवाबदेही का विकास। जब हम मीडिया के दायित्व की बात करते हैं तो यह सिद्धांत बताते हैं कि हमें इस बात को भी ध्यान में रखना है कि पारंपरिक रूप से मीडिया किस प्रकार से समाज में कार्य करता रहा है ,वह इस दायरे में ही रहकर के कार्य करने के लिए अक्सर मजबूर होता है।
National Press Day 16 November Framing Theory of Mass Media फ्रेमिंग सिद्धांत